Monday, December 31, 2012

अभी अभी तो आए थे....2012

बाय बाय 2012

नया साल आता है और कि‍तनी जल्‍दी उसके जाने का समय भी आ जाता है....                                                                     जब कि‍सी के आने पर खुशी होती हे तो जाने पर दुख भी होता है 
तभी तो कहा जाता है.........अभी अभी तो आए थे...........
नये साल के आने की खुशी और उत्‍साह में हम भूल ही जाते हैं
कि जाने वाले साल का भी हमने ऐसे ही स्‍वागत कि‍या था.... 
सन 2012 को बि‍दा करने के पहले आइये याद कर लें 
कि‍ इसका वेलकम हमने कैसे कि‍या था, जरा सुनि‍ये.....

                      

                           
आलेख - डॉ.राजेश टंडन
प्रस्‍तुति - सुरेश त्रि‍पाठी
कलाकार - सुप्रि‍या भारतीयन, संज्ञा टंडन, 
सुनील चि‍पडे, योगेश पाण्‍डे, महावीर बरगाह,
 कन्‍नू, पिंकी

आकाशवाणी बि‍लासपुर से ये नाटि‍का 31 दि‍संबर 2011 को प्रसारि‍त हुई थी

Sunday, December 30, 2012

एक संदेश दामि‍नी के नाम, हर बेटी के नाम

गीतांजलि गीत का संदेश दामि‍नी के नाम, 
 दुनि‍या की हर बेटी के नाम........  
दामि‍नी तुम्‍हें शत शत नमन, वंदन,  
तुम्‍हारे साहस का अभि‍नंदन






www.cgradio.net 
पर आपकी रचनाओं के प्रसारण के लि‍ये  हमें आप मेल कर सकते हैं इस पते पर
cgradio123@yahoo.in

Saturday, December 29, 2012

श्रद्धांजलि दामि‍नी


पूरे देश में पि‍छले 13 दि‍नों से हर जबान पर एक ही बात थी
 'बहुत बुरा हुआ'......
पूरा देश हि‍ला हुआ था, 
और आज जब दामि‍नी हमारा साथ छोड़कर चली गई 
तो हम सब स्‍तब्‍ध हैं.....हतप्रभ हैं.....हैरान हैं......
ऐसा लग रहा है जैसे दि‍ल और दि‍माग ने काम करना ही बंद कर दि‍या है.....
पर हमें सोचना होगा, इस आग को दि‍ल में जगा कर रखना होगा......
तब तक, जब तक दामि‍नी और ऐसी हर पीड़ि‍ता को इंसाफ न मि‍ले..... 
जब तक ये अपराध खत्‍म न हो जायें......
जब तक देश में नारी अपने आप को सुरक्षि‍त न महसूस करने लगे......

सीजी रेडि‍यो की तरफ से श्रद्धांजलि दामि‍नी को


                            

Friday, December 28, 2012

कवि‍ता पॉडकास्‍ट1


ब्‍लॉगर्स की कवि‍ताओं का पॉडकास्‍ट सीजी रेडि‍यो पर                                                                                  

संध्‍या शर्मा की कवि‍ताएं ललि‍त शर्मा के स्‍वर में    

कवि‍ता1 जीवन एक कि‍ताब,कवि‍ता 2 नि‍त जोत से जलती हूं,कवि‍ता 3 आखि‍री वक्‍त,कवि‍ता 4 रफता रफता            
link : sandhya sharma                                                                                       

  

शुभ्रा ठाकुर की कवि‍ता 'मौन' स्‍वयं के स्‍वर में





जय सिंह 'गगन' की कवि‍ता 'मेरा गांव' स्‍वर संज्ञा टंडन

Tuesday, December 25, 2012

एक कलाकार - नौशाद

सीजी रेडि‍यो के माध्‍यम से नौशाद साहब की याद....



                                        


नौशाद अली (1919-2006) हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध संगीतकार थे । पहली फिल्म में संगीत देने के 64 साल बाद तक अपने साज का जादू बिखेरते रहने के बावजूद नौशाद ने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया, लेकिन उनका कौशल इस बात की जीती जागती मिसाल है कि गुणवत्ता संख्याबल से कहीं आगे होती है।

नौशाद का जन्म 25 दिसम्बर 1919 को लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। वह 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई कूच कर गए थे। शुरुआती संघर्षपूर्ण दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताद झण्डे खां और पंडित खेम चन्द्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुयी।जीवन

संगीत
उन्हें पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में 'प्रेम नगर' में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 में प्रदर्शित हुई 'रतन' से जिसमें जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यहीं से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।
उन्होंने छोटे पर्दे के लिए 'द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' और 'अकबर द ग्रेट' जैसे धारावाहिक में भी संगीत दिया। बहरहाल नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की ताजमहल जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई। मुगले आजम को जब रंगीन किया गया तो उन्हें बेहद खुशी हुई ।

फिल्मी सफ़र
अंदाजआनमदर इंडियाअनमोल घड़ीबैजू बावराअमरस्टेशन मास्टरशारदाकोहिनूरउड़न खटोलादीवानादिल्लगीदर्ददास्तानशबाबबाबुलमुगले आजम,दुलारी, शाहजहांलीडरसंघर्षमेरे महबूबसाज और आवाजदिल दिया दर्द लियाराम और श्यामगंगा जमुनाआदमीगंवारसाथीतांगेवालापालकीआईनाधर्म कांटापाकीजा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गाड सहित अन्य कई फिल्मों में उन्होंने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया।

मारफ्तुन नगमात जैसी संगीत की अप्रतिम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां और नवाब संझू साहब से प्रभावित रहे नौशाद ने मुम्बई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना रिश्ता कायम रखा। मुम्बई में भी नौशाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था जिसमें उनके हम प्याला हम निवाला थे- मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुलतान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली 'कुमार'

यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नौशाद साहब शायर भी थे और उनका दीवान 'आठवां सुर' नाम से प्रकाशित हुआ। पांच मई को 2006 को इस फनी दुनिया को अलविदा कह गए नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इससे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-
रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है
ये कूचा मेरा जाना पहचाना है
क्या जाने क्यूं उड़ गए पंक्षी पेड़ों से
भरी बहारों में गुलशन वीराना है



Saturday, December 22, 2012

एक संगीतमय कहानी - नालायक

दीप्‍ति के साथ सुनि‍ये एक संगीतमय कहानी

रचना - रमा शेखर

                                    

घर के दो बच्‍चे एक से तो नहीं हो सकते ना....कोई मेधावी तो कोई कमजोर,
 एक नटखट तो दूसरा गंभीर....
बहुत सी बातें जिम्‍मेदार हो सकती हैं एक ही घर के 
दो बच्‍चों के व्‍यवहार को अलग अलग बनाने में....
लेकि‍न क्‍या मां बाप को इन दो बच्‍चों में अंतर करना चाहि‍ये...
पि‍ता और पुत्र के अनकहे से संबंधों पर आधारि‍त 
रमा शेखर की रचना  दीप्‍ति‍ सक्‍सेना के स्‍वर में सुनि‍ये 
सीजी रेडि‍यो पर....

Thursday, December 20, 2012

कि‍चन के साथ रोमांस 1



सफर में ले जाने वाले व्‍यंजनों पर आधारि‍त आज की कड़ी में 

अति‍थि हैं सुधा मारदा और एंकर हैं कंचन 

                                          
                                                        

Monday, December 17, 2012

गीतों की बहार 1 भूलना-भुलाना


कभी कभी भूलना भी याद करना होता है.....


एक समय ऐसा आता है जब हम बहुत कुछ भूलने लगते हैं। ये विस्मरण, बढ़ती उम्र और तनाव की देन है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हम उन्हीं चीजों को भूलते हैं जिन्हें हमारा मन स्वीकार नहीं करना चाहता। असल में रोजमर्रा की जिंदगी में हम मन के विपरीत बहुत सी चीजें ओढ़ लेते हैं। हमारे जीवन में कई ऐसी अनचाही चीजें शामिल हो जाती हैं जिनसे अवचेतन में हम छुटकारा पाना चाहते हैं। इनका बोझ हमें भुलक्कड़ बना देता है और एक दिन हम पाते हैं कि हम उन्हीं चीजों को भूलते जा रहे हैं जिन्हें हम अपने लिए सबसे आवश्यक मानते हैं। दरअसल हम जिन्हें अपने लिए आवश्यक समझ रहे होते हैं, उसे हमारा मन रिजेक्ट कर रहा होता है। यानी भूलना एक तरह से याद दिलाना भी है। विस्मरण हमें याद दिलाता है कि अपने मन की सुनो। अपने मन के मुताबिक थोड़ा तो जीकर देखो। अगर हम अपने मन की पुकार सुनें तो भूलना कम कर देंगे। कुछ भूलने की बातें, कुछ यादों की बातों के साथ सीजी रेडि‍यो में आज प्रस्‍तुत है गीतों की बहार....
                                   
                                                

Saturday, December 15, 2012

21 दि‍संबर को दुनि‍या का अंत हकीकत या भ्रम

http://gatyatmakjyotish.com/category/%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%B0-2012/page/4/

21 दि‍संबर बेहद नजदीक है....पि‍छले कुछ वर्षों से ये तारीख दुनि‍या के अंत के लि‍ये घोषि‍त की गई है....माया कैलेंडर का अंत या नास्‍त्रेदम की भवि‍ष्‍यवाणी, कि‍सी ग्रह के पृथ्‍वी से टकराने की बात या सुनमी, अणु बम का मानव द्वारा प्रयोग...कारण कुछ भी हो सकता है.....पर ये ति‍थि‍ ही क्‍यों, हर मन में है जि‍ज्ञासा भी और शायद कुछ डर भी....गत्‍यात्‍मक ज्‍योति‍ष से बरसों से जुड़ी श्रीमती संगीता पुरी का शोध, अध्‍ययन और अनुभव उनकी चार पोस्‍टों के माध्‍यम से पाठकों तक पहुंच चुका है....सीजी रेडि‍यो द्वारा अब प्रस्‍तुत है उसका ऑडि‍यो रूपांतरण.....

भाग 1
भाग 2
भाग 3
भाग 4 

Thursday, December 13, 2012

एक संगीतमय कहानी - महफि‍ल





 एक संगीतमय कहानी दीप्‍ति के साथ......महफि‍ल 


रचना - वि‍जय ठक्‍कर



सोहा और वि‍श्‍वराज दो पुराने साथी जब बरसों बाद मि‍ले,
तो यादों का सि‍लसि‍ला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था...
और जब थमा तो........सुनि‍ये संगीत से सजी ये कहानी दीप्‍ति
के अंदाज में.....

                                    

दीप्‍ति सक्‍सेना





Sunday, December 9, 2012

विशाल भारद्वाज का संगीतमय फि‍ल्‍मी सफर

विशाल भारद्वाज का संगीतमय फि‍ल्मी सफर...सुनील चि‍पड़े के साथ......

           
                             प्रस्तुति- सुनील चिपड़े                                  



 
"विशाल भारद्वाज" का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले मे हुआ था। उनका बचपन मेरठ में गुजरा। उनके पिता राम भारद्वाज एक कवि थे और शौकिया तौर पर हिन्दी फिल्मो के लिये गाने लिखते थे। पिता यह चाहने पर उन्होने संगीत सीखा। दिल्ली आने पर एक दोस्त की वजह से उनकी संगीत में दिलचस्पी हुई। विशाल ने राज्य स्तरीय क्रिकेट मैच भी खेले हैं। शुरुआती दौर मे उन्होने पेन म्यूजिक रिकॉर्डिंग कंपनी मे भी काम किया। तभी दिल्ली में उनकी मुलाकात गुलजार साहब से हुई। गुलजार के साथ उन्होने ‘चड्डी पहन के फूल खिला है’ गीत की रिकॉर्डिंग की। उसके बाद से उन्हे माचिस के लिए संगीत बनाने का मौका मिला।
संगीतकार
विशाल ने अपना सफर गुलजार के साथ मिलकर छोटे पर्दे पर द जंगल बुकएलिस इन वंडरलैंड और गुब्बारे के साथ शुरु किया। इसके बाद उन्होने गुलजारनिर्देशित फिल्ममाचिस का संगीत दिया। इस फ़िल्म के गीतों ने अपार लोकप्रियता हासिल की, और विशाल भारद्वाज रातों रात सुर्खियों में आ गए। इस फिल्म के लिये उन्हे वर्ष १९९६ के फिल्मफेयर आर. डी. बर्मन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। १९९९ मे आयी फिल्म गॉडमदर के लिये उन्हे श्रेष्ठ संगीत का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी मिला। वर्ष २०११ मे एक बार फिर फिल्म इश्किया के लिये उन्हे यह पुरस्कार दिया गया। इश्किया का निर्माण भारद्वाज ने किया है। इसी फिल्म के लिये उनकी पत्नी रेखा भारद्वाज को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। विशाल ने कई सारी हिन्दी फिल्मों के लिये संगीत दिया है जिसमे सत्याचाची ४२०मकबूलओंकाराइश्किया और सात खून माफ प्रमुख हैं।
 
फिल्म निर्देशक
विशाल निर्देशित पहली फिल्म मकङी थी। इसके बाद उन्होने शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ पर आधारित  फिल्म मकबूल बनाई। मक़बूल को बर्लिन फ़िल्म समारोह सहित कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में जगह मिली। वर्ष २००६ मे उन्होने शेक्सपियर द्वारा रचित नाटक ओथेलो पर आधारित फिल्म ओंकारा निर्देशित की। विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म के निर्देशन और पटकथा लेखन के साथ-साथ फ़िल्म के संवाद भी लिखे। मक़बूल के बाद एक बार शेक्सपियर की रचनाओं पर फिल्म बनाकर भारद्वाज ने अपनी निर्देशन क्षमता का लोहा मनवाया। इस फिल्म की सफलता ने उन्हे नई पीढ़ी के ऊर्जावान, उत्साही और कल्पनाशील निर्देशको की पंक्ति ला खङा किया। 30वें ‘कायरो फिल्म समारोह’ में फिल्म ओंकारा के लिए उन्हे सर्वश्रेष्ठ निर्देशक घोषित किया गया। ओंकारा के लिए विशाल को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समिति का विशेष पुरस्कार प्रदान किया गया। इसके बाद उन्होने रस्किन बॉन्ड के उपन्यास पर आधारित बच्चों के लिये फिल्म द ब्लू अम्ब्रेला का निर्देशन किया। २००९ मे उनकी फिल्म कमीने प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को दर्शकों से लेकर आलोचक तक सबकी प्रशंसा मिली। कमीने के लिए विशाल को पहले ग्लोबल इंडियन म्यूज़िक अवॉर्ड्स मे सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष २०१० मे आयी अभिषेक चौबे निर्देशित फिल्म इश्किया जिसका निर्माण, संवाद, संगीत और पटकथा लेखन विशाल ने किया था, के लिये विशाल को विशाल सर्वश्रेष्ठ संगीतकार और उनकी पत्नी रेखा भारद्वाज को सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला। २०११ मे उन्होने रस्किन बांड की सुज्ज़न'स सेवन हस्बेंड्स पर आधारित फिल्म ७ खून माफ निर्देशित की। इस फिल्म को दर्शकों और आलोचकों की मिली जुली प्रतिक्रिया मिली।
फिल्मोग्राफी
वर्षफ़िल्मयोगदानटिप्पणी
2012डेढ इश्कियानिर्माता, पटकथा लेखक, संगीतकारघोषित
2012मटरू की बिजली का मंडोलानिर्माता, निर्देशक, संगीतकारघोषित
2011७ खून माफनिर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, संगीतकार

2010इश्कियानिर्माता, पटकथा लेखक, संगीतकारसर्वश्रेष्ठ संगीत का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
2009कमीनेनिर्देशक, पटकथा लेखक, संगीतकार

2008हाल-ए-दिलसंगीतकार

2012यू मी और हमसंगीतकार

2007नो स्मोकिंगनिर्माता, संगीतकार

2007निशब्दसंगीतकार

2007दस कहानियांसंवाद लेखक

2006ओमकारानिर्देशक, संगीतकार, संवाद लेखकराष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समिति का विशेष पुरस्कार, कायरो फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार


Friday, December 7, 2012

मारवाड़ की ऐति‍हासि‍क कथा


पन्ना धाय से कम न था रानी बाघेली का बलिदान                               http://www.gyandarpan.com/2011/02/blog-post_24.html




          


        कहानी -  रतन सिंह शेखावत                                                                      स्‍वर - संज्ञा टंडन

                                            


भारतीय इतिहास में खासकर राजस्थान के इतिहास में बलिदानों की गौरव गाथाओं की एक लम्बी श्रंखला है इन्ही गाथाओं में आपने मेवाड़ राज्य की स्वामिभक्त पन्ना धाय का नाम तो जरुर सुना होगा जिसने अपने दूध पिते पुत्र का बलिदान देकर चितौड़ के राजकुमार को हत्या होने से बचा लिया था | ठीक इसी तरह राजस्थान के मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के नवजात राजकुमार अजीतसिंह को औरंगजेब से बचाने के लिए मारवाड़ राज्य के बलुन्दा ठिकाने की रानी बाघेली ने अपनी नवजात दूध पीती राजकुमारी का बलिदान देकर राजकुमार अजीतसिंह के जीवन की रक्षा की व राजकुमार अजीतसिंह का औरंगजेब के आतंक के बावजूद लालन पालन किया, पर पन्नाधाय के विपरीत रानी बाघेली के इस बलिदान को इतिहासकारों ने अपनी कृतियों में जगह तो दी है पर रानी बाघेली के त्याग और बलिदान व जोधपुर राज्य के उतराधिकारी की रक्षा करने का वो एतिहासिक और साहित्यक सम्मान नहीं मिला जिस तरह पन्ना धाय को | रानी बाघेली पर लिखने के मामले में इतिहासकारों ने कंजूसी बरती है और यही कारण है कि रानी के इस अदम्य त्याग और बलिदान से देश का आमजन अनभिज्ञ है |

28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गया | इन दोनों नवजात राजकुमारों व रानियों को लेकर जोधपुर के सरदार अपने दलबल के साथ अप्रेल 1679 में लाहौर से दिल्ली पहुंचे | तब तक औरंगजेब ने कूटनीति से पूरे मारवाड़ राज्य पर कब्ज़ा कर लिया और जगह जगह मुग़ल चौकियां स्थापित कर दी और राजकुमार अजीतसिंह को जोधपुर राज्य के उतराधिकारी के तौर पर मान्यता देने में आनाकानी करने लगा |
तब जोधपुर के सरदार दुर्गादास राठौड़,बलुन्दा के ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास आदि ने औरंगजेब के षड्यंत्र को भांप लिया उन्होंने शिशु राजकुमार को जल्द जल्द से दिल्ली से बाहर निकलकर मारवाड़ पहुँचाने का निर्णय लिया पर औरंगजेब ने उनके चारों और कड़े पहरे बिठा रखे थे ऐसी परिस्थितियों में शिशु राजकुमार को दिल्ली से बाहर निकलना बहुत दुरूह कार्य था | उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है |
छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |
यही राजकुमार अजीतसिंह बड़े होकर जोधपुर का महाराजा बने|इस तरह रानी बाघेली द्वारा अपनी कोख सूनी कर राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदलकर जोधपुर राज्य के उतराधिकारी को सुरक्षित बचा कर जोधपुर राज्य में वही भूमिका अदा की जो पन्ना धाय ने मेवाड़ राज्य के उतराधिकारी उदयसिंह को बचाने में की थी | हम कल्पना कर सकते है कि बलुन्दा ठिकाने की वह रानी बाघेली उस वक्त की नजाकत को देख अपनी पुत्री का बलिदान देकर राजकुमार अजीतसिंह को औरंगजेब के चुंगल से बचाकर मारवाड़ नहीं पहुंचाती तो मारवाड़ का आज इतिहास क्या होता? नमन है भारतभूमि की इस वीरांगना रानी बाघेली जी और इनके इस अद्भुत त्याग व बलिदान को; 

2/24/2011 को  Ratan singh shekhawat की पोस्‍ट पर आधारि‍त  सीजीरेडि‍यो की प्रस्‍तुति
http://www.gyandarpan.com/2011/02/blog-post_24.html

Tuesday, December 4, 2012

रूमाल का सफर

शुभकामना संदेशों से लबरेज सीजी रेडि‍यो

                             
Shubhda Pandey
Lalit Sharma

 

 

 

 

 

 



         


रुमाल वर्तमान में हमारी जरुरत का सामान बन गया है। ऑफ़िस या काम पर जाने से पहले आदमी हो या औरत रुमाल साथ रखना नहीं भूलते। बच्चा भी जब स्कूल जाता है तो उसकी वर्दी पर माँ पिन से रुमाल लगाना नहीं भूलती। रुमाल का कब क्यों और कैसे अविष्कार हुआ यह बता पाना तो कठिन है। पर सुना है कि फ़्रांस के राजा की बेटी से विवाह करने वाले इंग्लैंड के राजा रिचर्ड द्वितीय के मन में प्रथमत: रुमाल बनाने का विचार आया। गद्दीनशीन होने पर उसे हाथ और नाक मुंह पोंछना पड़ता था, उसके लिए तौलिए का काम लिया जाता था, जो कि बहुत भारी था। इसलिए उसने आदेश दिया रंग-बिरंगे कपड़ों के छोटे-छोटे टुकड़े तौलिए के स्थान पर प्रयोग में लाए जाएं। इस तरह रुमाल  का जन्म हुआ। रुमाल इंग्लैंड से होते हुए एशिया में भारत तक पहुंच गया। हैंडकरचीफ़ से इसे स्थानीय भाषा के रुमाल, कामदानी, करवस्त्र, उरमाल, सांफ़ी इत्यादि नाम भी मिल गए। रुमाल का सफ़र चल पड़ा अब यह सभ्यता और व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
भारत में रुमाल की जगह अंग वस्त्रम् उत्तरीय का प्रचलन था, जिसे कालान्तर में अंगोछा या गमछा का नाम दिया गया। गमछा या अंगोछा सभी ॠतुओं में मनुष्य के काम आता है। महीन धागों से बना हुआ वजन में हल्का वस्त्र सर्दी, गर्मी से रक्षा करता है तो वर्षाकाल में भीगे हुए शरीर को पोंछने के काम आता है। बाजार जाने पर थैला नहीं है तो अंगोछा ही सब्जी रखने के काम आ जाता है। भोजन के वक्त थाली के अभाव में भोजन करने के भी काम आ जाता है। अंगोछा का प्रचलन वर्तमान में भी है। लोग प्रदूषण से बचने के लिए मुंह ढंक कर शहर में घूमते-फ़िरते मिल जाते हैं। अंग्रेजों के साथ रुमाल आने पर इसे भारतीय जनमानस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। कोट-पतलून-बुशशर्ट के साथ-साथ रुमाल भी वेशभूषा का आवश्यक अंग बन गया। इस तरह अंग वस्त्रम् उत्तरीय के लघु रुप रुमाल की यात्रा प्रारंभ हो गयी। जो नजले से टपकते नाक, एवं पशीने से लथपथ मुंह पोंछने से चलकर आशिकों की रुह में समा गया। कमाल का रुमाल है।

वो भी क्या दिन थे जब आशिक लड़कियों के रुमाल के लिए मरा करते थे |अगर गलती से किसी लड़की का रुमाल मिल जाए तो खुद को खुशनसीब समझते थे| उस रुमाल को जान से भी ज्यादा प्यार करते| उसे तकिये के नीचे रख के सोते थे। रुमाल प्रेमियों को बहुत भाया। रंग-बिरंगे रुमालों पर विभिन्न प्रकार के चित्र एवं चिन्ह बनाए जाते हैं। किन्ही पर नाम के प्रथम अक्षर वर्णित होते हैं। पंडुक पक्षीयों का जोड़ा रुमाल पर शोभायमान होता है। जिस तरह जीवन पर्यन्त पंडूक पक्षी का प्रेम और जोड़ा बना रहता है उसी तरह प्रेमी-प्रेमिकाओं का भी ताउम्र जोड़ा बना रहे।
नायिका कहीं अपना रुमाल जानबूझ कर या धोखे से भूल जाती तो आशिक की पौ बारह मानिए। नायिका रुमाल पर सूई-धागे से दिल का चिन्ह बनाती तो आशिक समझता कि यह दिल उसी के लिए रुमाल पर निकाल कर रख दिया है। वह इसे सूंघ कर देखता कि चमेली के इत्र की महक है या नहीं और इससे उसके कुल-परिवार के रहन-सहन एवं आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाता। आशिक रुमाल पाकर रोमांचित हो उठता और कह उठता कि-इस तरह के रुमाल तो मसूरी के माल रोड़ पर मिला करते थे। ऐसा ही रुमाल सोहनी ने अपने महिवाल को दरिया-ए-चिनाब के किनारे दिया था और महिवाल ने उसे ताउम्र अपने गले से बांधे रखे था। उस वक्त मान्यता थी कि रुमाल का तोहफ़ा देने से प्रेम सफ़ल हो जाता है। स्थानीय  बोलियों एवं भाषाओं में रुमाल को लेकर प्रेम के गीत लिखे गए जिन्हे आज तक ग्रामीण अंचलों में गाया जाता है।
फ़िल्म वालों ने भी रुमाल का प्रचार-प्रसार करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। फ़िल्मों एवं फ़िल्मी गीतों में रुमाल का इस्तेमाल धड़ल्ले से होने लगा। जब प्राण जैसा उम्दा खलनायक गले में रुमाल बांधकर रामपुरी चाकू परदे पर लहराता था तो दर्शक सिहर उठते थे और यही रुमाल देवानंद गले में डाल कर एक गीत गाता था तो सिनेमा हॉल सीटियों से गुंज उठता था। फ़िल्मी गीत भी चल पड़े - इस तरह फ़िल्मों मे रुमाल अब तक छाया हुआ है।
जहाँ एक तरफ़ यह रुमाल प्रेमियों को आकर्षित करता रहा वहीं दूसरी तरफ़ इसने बेरहमी से कत्ल भी किए। इतिहास में जब दुनिया के सबसे खुंखार सीरियल किलर का जिक्र आता है तो पीले रुमाल की क्रूरता भी सामने आती है। बेरहाम नामक इस बेरहम ठग को खून से डर लगता था, यह अपने शिकार की हत्या पीले रुमाल से गला घोंट कर करता था। 1765-1840 तक इस बेरहम खूनी का दौर चला। व्यापारी हो या फिर तीर्थयात्रा पर निकले श्रद्धालु या फिर चार धाम के यात्रा करने जा रहे परिवार, सभी निकलते तो अपने-अपने घरों से लेकिन ना जाने कहां गायब हो जाते, यह एक रहस्य बन गया था। काफिले में चलने वाले लोगों को जमीन खा जाती है या आकाश निगल जाता है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।यह यात्रियों के दल में शामिल होकर उन्हे हत्या करने के पश्चात लूट लेता था और उनकी लाशें दफ़ना देता था जिससे उनका नामो-निशान ही नहीं मिलता था।सन् 1809 मे इंग्लैंड से भारत आने वाले अंग्रेज अफसर कैप्टन विलियम स्लीमैन को ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौपी। तब 10 वर्षों की गुप्तचरी के पश्चात इस पीले रुमाल वाले खूनी को गिरफ़्तार किया जा सका। बताते तो ये भी है कि स्लीमैन का एक पड़पोता इंग्लैड में रहता है और उसने अपने ड्राइंगरुम में उस पीले रुमाल को संजों कर रख रखा है।
भारत में हिमाचल के चंबा का रुमाल अपनी बेमिसाल कढाई के लिए प्रसिद्ध है। सूती के कपड़ों पर जब रेशम के चमकीले रंग-बिरंगे धागों से कलाकार जब अपनी कल्पनाओं की कढाई करते हैं तो वह सजीव हो उठती है। इन रुमालों पर की गयी कलाकारी को देखकर ऐसा लगता है मानो चित्र अब बोल पड़ेगें। लोग कढाई की इस बारीक कला को देख कर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। चम्बा में बनने वाले रुमालों पर न केवल रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत, दूर्गासप्तशती, और कृष्ण लीलाओं को भी काढा जाता है बल्कि राजाओं के आखेट का भी सजीव चित्रण किया जाता है। यह रुमाल एक वर्ग फ़ीट से लेकर 10 वर्ग फ़ीट तक के आकार में होते हैं। चम्बा की रुमाल कढाई प्राचीन हस्तकला का नमूना है बल्कि एतिहासिक महत्व भी रखती है। इसका पंजीयन बौद्धिक सम्पदा अधिनियम के तहत करा लिया गया है। जिससे रुमाल निर्माण की हस्तकला को संरक्षण देकर बचाया जा सके।

वर्तमान ने कागज के नेपकीन बाजार में आ गए हैं। इनका प्रचलन रुमालों को बाजार से बाहर नहीं कर पाया है। रुमाल की अपनी अलग ही महत्ता है। आज भी हस्त निर्मित रुमाल बनाए जा रहे हैं। सूती एवं रेशमी वस्त्र पर विभिन्न माध्यमों से कढाई एवं प्रिंटिग हो रही है। जिनमें हाथों से किए गए बंधेज के काम में लगभग 150 तरह के डिजाईन बनाए जाते हैं तथा मशीन एवं कम्प्युटर की सहायता से हजारों डिजाईन बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बुटिक प्रिंट, टैक्स्चर प्रिंट, फ़ैब्रिक पेंटिंग, क्रोशिया वर्क, ब्लॉक प्रिंट, सैटिंग, वेजीटेबल प्रिंट, स्क्रीन प्रिंट, थ्री डी कलर, ग्लो पैंटिंग, स्प्रे पेंटिंग, थ्रेड पैंटिंग, मारबल पैंटिग, स्मोक पैंटिग, गोदना पैंटिंग, एवं फ़ैंसी रुमाल भी बनाए जा रहे हैं। समय कितना भी बदल जाए लेकिन रुमालों का चलन रहेगा और जनमानस को अपने नए-नए रुपों में आकर्षित करता रहेगा।


ब्लॉ.ललित शर्मा की बुधवार, 20 अप्रैल 2011 की  पोस्‍ट पर आधारि‍त पॉडकास्‍ट शुभदा पांडे के स्‍वर में


प्रस्‍तुति‍ - संज्ञा टंडन

पॉडकास्‍ट में शामि‍ल गीत सिर पर टोपी लाल, हाथ में रेशम का रुमाल- तुमसा नहीं देखा
रेशम का रुमाल गले पे डालके, तू आ जाना दिलदार, इला अरूण
हाथों में आ गया जो कल रुमाल आपका, बेचैन केर रहा है ख्याल आपका - आओ प्‍यार करें
दूंगी तैनू रेशमी रुमाल,ओ बांके जरा डेरे आना- प्रेम पुजारी
आएगी मेरी याद जब होगा बुरा हाल तो देख ये रूमाल - गुरूदेव
आते जाते खूबसूरत आवारा - अनुरोध