बचपन
बचपन-एक ऐसा शब्द जिसकी मधुर स्मृतियाँ हर जेहन में जीवन भर बसी होती है, जिनको याद करना, कल्पनाओं में समय के बीत चुके पलों में उड़ाने भरने के समान है.
बच्चे की पहली आवाज, उसका रोना, घर के सभी सदस्यों के चेहरों पर मुस्कान ला देता है। बिलकुल वीआईपी होता है बच्चा। चारों तरफ लोगों से घिरा हुआ, जिसकी किलकारी लोगों को खुश और जरा सी पीड़ा भरी दुहाई सबको दौड़भाग करने को मजबूर कर देती है। जिसकी हर हरकत को प्रशंसा के भाव से देखा जाता है और हर शिकायत ममत्व और अपनत्व से भरी होती है। बच्चे का पहली बार पलटना, घुटनों पर चलना, पैरों पर खड़े होना, पहला शब्द बोलना- त्यौहार के मानिन्द होता है। लेकिन ये सारी बातें बचपन के उस हिस्से से जुड़ी हुई जो बड़े होने पर यादों में नहीं परिवार वालों की बातों से पता चलती रहती हैं- बचपन की याद रखने वाली बातें तो होती है- नानी-दादी की कहानियां, बारिश के पानी में छप-छप करना, दूध चुपके से खिड़की के पीछे फेंक देना, सिक्कों को मिट्टी में रोपना या फिर आम-अमरूद के पेड़ों पर चढ़कर चोरी से फल तोड़ना। हर व्यक्ति के साथ अपने बचपन की यादों का एक बहुत पिटारा होता है- जिसको खोलने पर बस यही लगता है - बचपन के दिन भी क्या दिन थे।
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बच्चे का स्कूल जाना परिवार के लिए अपने आप में अभूतपूर्व घटना होती है। माँ-बाप से मिले शिक्षा और संस्कार अकेले काफी नहीं होते। गुरुजनों से ज्ञानार्जन बहुत जरूरी होता है। कितना अजीब लगता है अक्षरज्ञान से शिक्षा प्रारंभ करके बच्चा बाद में अकल्पनीय ऊँचाइयों तक पहँच जाता है। यकीनन इस दौरान बच्चे के बस्ते का बोझ भविष्य के लिए उसके कंधो को मजबूती देता है। कितना बढ़िया होता है बचपन सिर्फ खाओ-पियो, पढ़ो और खेलो- ना कोई चिंता- ना कोई गम।
बच्चे का स्कूल जाना परिवार के लिए अपने आप में अभूतपूर्व घटना होती है। माँ-बाप से मिले शिक्षा और संस्कार अकेले काफी नहीं होते। गुरुजनों से ज्ञानार्जन बहुत जरूरी होता है। कितना अजीब लगता है अक्षरज्ञान से शिक्षा प्रारंभ करके बच्चा बाद में अकल्पनीय ऊँचाइयों तक पहँच जाता है। यकीनन इस दौरान बच्चे के बस्ते का बोझ भविष्य के लिए उसके कंधो को मजबूती देता है। कितना बढ़िया होता है बचपन सिर्फ खाओ-पियो, पढ़ो और खेलो- ना कोई चिंता- ना कोई गम।
पहले के समय में गिल्ली-डंडा, डंडा-पचरंगा, लट्टू , सत्थुल-पिट्टुल, गदागदी, छू-छूआ, छुपा-छुपी आदि अनेक देसी खेल जाने थे। आज क्रिकेट, हॉकी, फुटबॉल के साथ साथ रकबी और बेसबॉल जैसे आधुनिक खेलों का जमाना है। यहाँ तक तो सब ठीक है- लेकिन बच्चे आजकल वीडियो और कम्प्यूटर गेम्स खेला करते हैं-अब उसमें दिमागी मजबूती कितनी मिलती है- हम नहीं जानते - लेकिन शारीरिक मजबूती तो कतई नहीं मिलती। बहरहाल बच्चों का बचपन खेलों के बगैर गुजरे ऐसा तो हो ही नहीं सकता क्योंकि बच्चे और खेल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और खेलने के लिए होते हैं साथी- ढेर सारे साथी -ढेर सारे दोस्त । जिनमें दांतकाटी दोस्ती भी होती है, तुनक-मिजाज़ी भी, मान-मनौवल भी और कभी खट्टी कभी मिट्ठी। बचपन के साथी शायद ही कभी कोई भूल सकता है।
अगर हम आपसे पूछें कि ये बचपन आखिर है क्या- तो आपका जवाब क्या होगा- शायद कोई कहे उन्मुक्त आकाश और मजबूत पंख - यही बचपन है। न जवाबदारी, न भय, न जहमत, न तोहमत, बस प्यार, स्नेह वात्सल्य और दुलार - यही होता है बचपन। किसी का जवाब हो सकता है -सीख, संस्कार, समझाइश- यही होता है बचपन या फिर - मुस्कुराहट, खिलखिलाहट, हास-परिहास- ये है बचपन। जवाब ये भी हो सकता है- थोड़ी डाँट, थोड़ी डपट, एक चपत और दो बूंद आंसू- ये है बचपन या-निश्छलता, सरलता, निस्वार्थता और अपनापन- ये है बचपन।
बालसुलभता या बचपना प्रत्येक व्यक्ति में मौजूद होता है, और आखिर क्यों न हो, हर व्यक्ति ने जीवन के उन बेहतरीन पलों को जिया है, भोगा है, समझा है और आनंद लिया है। स्वर्णिम काल होता है बचपन। और अप्रतिम बचपन का बचपना बढ़ती उम्र के साथ भी अपना अंश, अपनी मौजूदगी बनाए रखता है। मौका-ब-मौका, जाने- अनजाने, प्रत्येक उम्र दराज इसका प्रदर्शन भी करता है और सबको अच्छा भी लगता है- बावजूद इसके उम्र के दूसरे पड़ावों तक पहुँचने के लिए बचपन को बाय-बाय करना ही पड़ता है। कभी न कभी वह अबोध बालपन, भोलापन, हमसे छूट ही जाता है।
अक्सर उदासी या तन्हाई के आलम में आदमी अपने बचपन की स्मृतियों का सहारा लेता है। बचपन की खट्टी -मिट्ठी यादें वापस उम्र के उसी मोड़ पर पहुँचा देती हैं। यार-दोस्त, शैतानियाँ, खेल-प्यार, स्नेह-भरी घटनांए जब याद आती हैं तो अवसाद की स्थिति से आदमी निश्चित ही उबर जाता है वहीं बचपन में घटी कुछ घटनांएँ ऐसी होती है जो आंखें नम कर देती है। ना जाने कितने भाव और रसों को समेटे रहता है बचपन अपने अंदर। ऐसा ही होता है बचपन।
आलेख : डॉ.राजेश टंडन
स्वर : संज्ञा